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जानिए झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के बारे में // Know about Rani Laxmibai of Jhansi

            रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई (जन्म: 19 नवम्बर 1828 – मृत्यु: 18 जून 1858) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना थीं। उन्होंने सिर्फ़ 23 साल की उम्र में अंग्रेज़ साम्राज्य की सेना से जद्दोजहद की और रणभूमि में उनकी मौत हुई थी।

जन्म: 19 नवम्बर 1828, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु: 18 जून 1858, कोटा की सराय, ग्वालियर
कार्यक्षेत्र: झाँसी की रानी, 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना
रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थीं और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध बिगुल बजाने वाले वीरों में से एक थीं। वे ऐसी वीरांगना थीं जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से मोर्चा लिया और रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हो गयीं परन्तु जीते जी अंग्रेजों को अपने राज्य झाँसी पर कब्जा नहीं करने दिया।
प्रारंभिक जीवन
लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उसके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर परिवारवाले उन्हें स्नेह से मनु पुकारते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी सप्रे। उनके माता-पिता महाराष्ट्र से सम्बन्ध रखते थे। जब लक्ष्मीबाई मात्र चार साल की थीं तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माँ के निधन के बाद घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये। वहां मनु के स्वभाव ने सबका मन मोह लिया और लोग उसे प्यार से “छबीली” कहने लगे। शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ मनु को शस्त्रों की शिक्षा भी दी गयी। सन 1842 में मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वे झाँसी की रानी बन गयीं और उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को पुत्र रत्न की पारपत हुई पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। उधर गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। उन्होंने वैसा ही किया और पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव परलोक सिधार गए। उनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।
विवाह : इधर सन्‌ 1838 में गंगाधर राव को झांसी का राजा घोषित किया गया। वे विधुर थे। सन्‌ 1850 में मनुबाई से उनका विवाह हुआ। सन्‌ 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई, लेकिन चार माह पश्चात उस बालक का निधन हो गया। 
 
सारी झांसी शोक सागर में निमग्न हो गई। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे। 
यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंगरेजी सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। 
अंग्रजों की राज्य हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) और झाँसी
ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत अंग्रेजों ने बालक दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और ‘डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स’ नीति के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया। हालाँकि रानी लक्ष्मीबाई ने अँगरेज़ वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया। अंग्रेजों ने झाँसी राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगादाहर राव के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुक्म दे दिया। अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने को कहा जिसके बाद उन्हें रानीमहल में जाना पड़ा। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया।
अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष 
अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भी भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। झाँसी की आम जनता ने भी इस संग्राम में रानी का साथ दिया। लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना में प्रमुख स्थान दिया गया।
अंग्रेजों के खिलाफ रानी लक्ष्मीबाई की जंग में कई और अपदस्त और अंग्रेजी हड़प नीति के शिकार राजाओं जैसे बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे।
सन 1858 के जनवरी महीने में अंग्रेजी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च में शहर को घेर लिया। लगभग दो हफ़्तों के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया पर रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेजी सेना से बच कर भाग निकली। झाँसी से भागकर रानी लक्ष्मीबाई कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिलीं
तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की संयुक्त सेना ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने जी-जान से अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया पर 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गयीं।
भारतीय परंपराएं थीं या इत्तेफाक कि रानी लक्ष्मीबाई को रूबरू देखने का सौभाग्य बस एक गोरे आदमी को मिला। अंग्रेजों के खिलाफ जिंदगी भर जंग लड़ने वालीं और जंग के मैदान में ही लड़ते-लड़ते जान देने वालीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को बस एक अंग्रेज ने देखा था। ये अंग्रेज था जॉन लैंग, जो मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया का रहने वाला था और ब्रिटेन में रहकर वहीं की सरकार के खिलाफ कोर्ट में मुकदमे लड़ता था। उसे एक बार रानी झांसी को करीब से देखने, बात करने का मौका मिला। रानी की खूबसूरती और उनकी आवाज का जिक्र जॉन ने अपनी किताब ‘वांडरिंग्स इन इंडिया’ में किया था।
जॉन लैंग पेशे से वकील था, और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने उसे लंदन में अपना केस लड़ने के लिए नियुक्त किया था। लेकिन केस को समझने के लिए ये मुमकिन नहीं था कि रानी लंदन ना जाएं और वकील भी बिना यहां आए या उनसे मिले केस पूरा समझ सके। उस वक्त फोन, इंटरनेट जैसी सुविधा भी नहीं थी। सो रानी ने उसे मिलने के लिए झांसी बुलाया। चूंकि रानी जैसे अकेले क्लाइंट से ही लैंग का साल भर का खर्चा निकल जाना था। उन दिनों वो भारत की यात्रा पर ही था, सो वो तुरंत झांसी के लिए निकल पड़ा। इसी तरह की भारत यात्राओं के दौरान लैंग को तमाम तरह के अनुभव हुए और उन्हीं अनुभवों को उसने अपनी किताब ‘वांडरिंग्स इन इंडिया’ में सहेजा है।
उसकी यही किताब भारतीय इतिहासकारों के लिए तब धरोहर बन गई जब पता चला कि ये अकेला गोरा व्यक्ति है जो रानी झांसी से रूबरू मिला था और रानी के व्यक्तित्व के बारे में उसने बिना पूर्वाग्रह के कुछ लिखा है। हालांकि उस वक्त के कई लोगों ने रानी के बारे में लिखा था, लेकिन माना यही गया है कि आधुनिक इतिहास लेखन के हिसाब से वो निष्पक्ष या ऐतिहासिक दृष्टिकोण से नहीं लिखा गया था। यही वो मुलाकात थी, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी वो मशहूर अमर लाइनें बोलीं थीं, ‘मैं मेरी झांसी नहीं दूंगी’। इतना ही नहीं हम अब तक रानी की वही तस्वीर देखते आए हैं, जिसमें वो लाल अंगारे आंखों में लिए हुए एक घोड़े पर बैठे तलवार चला रही हैं, कमर में उनका बेटा दामोदर राव बना हुआ है। ऐसे में जॉन लैंग ने उनकी एक दूसरी तस्वीर दुनिया के सामने पेश की, कि वो कैसी दिखती हैं, कैसे बोलती हैं, उनकी आवाज में कितनी शालीनता या गंभीरता है और वो किस तरह के कपड़े पहनती हैं। दिलचस्प बात ये है कि ये भी कभी सामने नहीं आता, अगर युद्ध के दौरान उनकी कमर में बंधे रहने वाले उनके गोद लिए हुए बेटे दामोदर ने अचानक रानी और लैंग के बीच का पर्दा ना हटा दिया होता।
28 अप्रैल 1854 को मेजर एलिस ने रानी को किला छोड़ने का फरमान सुनाया और पेंशन लेकर उन्हें रानी महल में ठहरने के आदेश दे दिए। इस वजह से रानी लक्ष्‍मीबाई को पांच हजार रुपये की पेंशन पर किला छोड़कर रानी महल में रहना पड़ा। तब झांसी दरबार ने केस को लंदन की कोर्ट में ले जाने का फैसला किया, ऐसे में वहां केस लड़ने के लिए ऐसे वकील की जरूरत थी, जो ब्रिटिश शासकों से सहानुभूति ना रखता हो, उनके खिलाफ केस जीतने का तर्जुबा हो और भारत या भारतीयों को समझता हो, उनके लिए अच्छा सोचता हो। लोगों से राय ली गई तो ऐसे में नाम सामने आया जॉन लैंग का। रानी ने सोने के पत्ते पर लैंग के लिए मिलने की रिक्वेस्ट के साथ अपने दो करीबियों को भेजा, एक उनका वित्तमंत्री था और दूसरा कोई कानूनी अधिकारी था। उस वक्त लैंग आगरा में थे, आगरा अभी झांसी से कुछ ही घंटों का रास्ता है, लेकिन उन दिनों इस यात्रा में दो दिन लगते थे।
लैंग ने आगरा से ग्वालियर और ग्वालियर से रानी की भेजी शानदार घोड़ागाड़ी का, उसमें हाथ से चलाने वाले पंखे का, उसके फ्रांसीसी घोड़ों का विस्तार से उल्लेख अपनी किताब में किया है। जब वो झांसी पहुंचा, कैसे लोगों ने उसका स्वागत किया, कैसे रानी के महल में जाने से पहले उसके जूते उतरवाए गए, कैसे दामोदर से उसकी पहली मुलाकात हुई, ये भी आप उसकी किताब में पढ़ सकते हैं।
बातचीत के वक्त बीच में था पर्दा, शाम का वक्त था। महल के बाहर भीड़ जमा थी। झांसी रि‍यासत के राजस्व मंत्री ने भीड़ को नियंत्रित करते हुए जॉन लैंग के लिए सुविधाजनक स्थान बनाया। इसके बाद संकरी सीढ़ियों से जॉन लैंग को महल के ऊपरी कक्ष में ले जाया गया। उन्‍हें बैठने के लिए कुर्सी दी गई। उन्होंने देखा कि सामने पर्दा पड़ा हुआ था। उसके पीछे रानी लक्ष्‍मीबाई, दत्‍तक पुत्र दामोदर राव और सेविकाएं थीं। अचानक से बच्चे दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया, रानी हैरान रह गईं, कुछ ही सैकंड्स में वो पर्दा ठीक किया गया लेकिन तब तक जॉन लैंग रानी को देख चुका था।
जॉन लैंग रानी को देखकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने रानी से कहा कि, “if the Governor-General could only be as fortunate as I have been and for even so brief a while, I feel quite sure that he would at once give Jhansi back again to be ruled by its beautiful Queen.”। हालांकि रानी ने बड़ी सधी हुई प्रतिक्रिया के साथ गरिमामयी ढंग से इस कॉम्पलीमेंट को स्वीकार किया। जॉन लैंग ने अपनी किताब में लिखा है कि ‘महारानी जो औसत कद, स्वस्थ, साधारण शरीर और कम आयु में बहुत सुंदर लगने वाली गोल चेहरे वाली महिला थीं। उनकी आंखें काफी सुंदर और नाक की बनावट बेहद नाजुक थी। रंग बहुत गोरा नहीं, लेकि‍न श्‍यामलता से काफी बढ़ि‍या था। उनके शरीर पर कानों में ईयर रिंग के सिवा कोई जेवर नहीं था। सफेद मलमल के कपड़े पहने हुए थीं रानी। उन्‍होंने लि‍खा है कि‍ वो बहुत अच्छी बुनाई की गई सफेद मलमल के कपड़े पहनी हुई थीं। इस परिधान में उनके शरीर का रेखांकन काफी स्‍पष्‍ट था। वो वाकई बहुत सुंदर थीं। जो चीज उनके व्यक्तित्व को बिगाड़ती थी, वो उनकी रूआंसी ध्वनियुक्त एक फटी आवाज थी। हालांकि‍, वो बेहद समझदार और प्रभावशाली महि‍ला थीं।
हालांकि माना ये भी जाता है कि इसके अलावा लक्ष्मीबाई को एक अंग्रेज सर रॉबर्ट हैमिल्टन ने भी देखा था, लेकिन उसने सि‍र्फ मुलाकात और उनसे बातचीत का ही जिक्र किया है। हैमिल्टन ने रानी की सुंदरता के बारे में कुछ नहीं लिखा है। ऐसे में हो सकता है कि‍ उसने सामने से नहीं देखा हो। लेकिन जॉन लैंग ने ना केवल देखा बल्कि भविष्य की पीढ़ी के लिए एक इतिहास ही लिख दिया।