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गंतव्य बच्चों की योजना (एफएडीसी) को वित्तीय सहायता
यह एक राज्य योजना है जिसके अंतर्गत 21 वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों के माता-पिता/अभिभावक जो अपने माता-पिता, लंबी बीमारी या मानसिक मंदता की मृत्यु या लंबी कारावास की वजह से उचित देखभाल से वंचित हैं, को अधिकतम सहायता के अधीन वित्तीय सहायता का भुगतान किया जाता है यह योजना निर्धारित योग्यता मानदंडों के अनुसार एक परिवार के दो बच्चों के लिए है ।

वृद्धावस्था सम्मान भत्ता
यह एक राज्य योजना है जिसके अंतर्गत 60 वर्ष और उससे अधिक उम्र के हरियाणा के वरिष्ठ नागरिकों को योजना के नियमों में निर्धारित पात्रता मानदंडों के अनुसार वृद्धावस्था सम्मान भत्ता दिया जाता है।

विधवा पेंशन योजना
यह एक राज्य योजना है जिसके तहत योजना के नियमों में निर्धारित योग्यता मानदंडों के अनुसार 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के निराधार या निर्जन महिलाओं और विधवा को पेंशन दी जाती है।

विकलांगता पेंशन योजना
यह एक राज्य योजना है जिसके तहत न्यूनतम 60% विकलांगता वाले हरियाणा के विकलांग व्यक्ति और 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के विकलांग व्यक्ति को योजना के नियमों में निर्धारित पात्रता मानदंडों के अनुसार पेंशन दी जाती है।

गैर स्कूल जाने योग्य विकलांग बच्चों को वित्तीय सहायता (18 साल से कम)
इस योजना के तहत मानसिक रूप से मंद और कई अक्षम बच्चे जो 0-18 वर्ष के आयु वर्ग में हैं, जो औपचारिक शिक्षा, प्रशिक्षण इत्यादि में भाग लेने में सक्षम नहीं हैं, उनकी अक्षमता के कारण वित्तीय सहायता दी जाती है। वे पूरी तरह से अपने माता-पिता और रिश्तेदारों पर निर्भर हैं और निरंतर पर्यवेक्षण और उनके परिवारों की देखभाल की आवश्यकता है। आवेदक के परिवार में ऐसे हर विकलांग…


बौने के लिए भत्ता
राज्य के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले बौने व्यक्ति को भत्ते दिए जा रहे हैं | 3 फीट 8 इंच या उससे कम ऊंचाई वाले पुरुष और 3 फीट 3 इंच या उससे कम ऊंचाई वाली महिला (70% विकलांग के बराबर) मासिक भत्ता के हकदार है।

नपुंसकों के लिए भत्ता
राज्य के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले नपुंसकों, जोकि 18 साल से कम नहीं होने चाहिए और यूनियन के समर्थन में सिविल सर्जन द्वारा प्रमाण पत्र प्राप्त होना चाहिए। 

हरियाणा की राजनीतिक बिसात, हरियाणा के जन्म से लेकर अब तक की रोमाचक बाते।

जब संयुक्त पंजाब के विशाल क्षेत्र में से हरियाणा राज्य के गठन की मांग उठने लगी तो पंजाबी क्षेत्र के अति चतुर नेताओं ने पंजाब राज्य के अधिकांश बजट को (वर्तमान) पंजाब के विकास हेतू लगाना शुरू कर दिया और हरियाणवी क्षेत्र के साथ भेदभाव बरता जाने लगा। संयुक्त पंजाब में से कुल 44212 वर्ग किलोमीटर जमीन का वह टुकडा, जिसका कुछ भाग बंजर तथा अधिकांश भाग अविकसित था, को हरियाणा प्रदेश का नाम देकर 1 नवंबर 1966 अलग कर दिया।

संयुक्त पंजाब के हरियाणावी विधानसभा क्षेत्र झज्जर के विधायक पंडित भगवत दयाल शर्मा ने एक नवंबर 1966 को नवगठित प्रदेश हरियाणा की बागडोर संभाली। पूरे प्रदेश की जनता को वरिष्ठ व अनुभवी नेता के तौर पर पंडित जी से पूर्ण उम्मीद थी कि उनके सफल नेतृत्व में हरियाणा नई बुलन्दियों को छूएगा। हरियाणा गठन के मात्र 3 महीने 21 दिन के पश्चात हरियाणा प्रदेश का पहला विधानसभा चुनाव हुआ, जिसमें 48 सीटें प्राप्त कर कांग्रेस ने पंडित भगवत दयाल शर्मा के नेतृत्व में पुनः सरकार बनाई, लेकिन चाटूकारों के जाल में फंसे पंडित जी को पता नहीं चल पाया, कि उनकी कुर्सी छीनने की योजना को मूर्त रूप दिया जा रहा है। प्रथम विधानसभा चुनावों में यमुनानगर से विधायक बनने के पश्चात 10 मार्च 1967 को पुनः गद्दीनशीं होने का जश्न मना रहे पंडित जी को मात्र 13 दिन के बाद ही गद्दीविहीन कर दिया गया। इन 13 दिनों में जो सियासी हथकंडे अपनाएं गए उन्हें देख-सुन पूरा देश स्तब्ध रह गया। 24 मार्च 1967 को हरियाणा विधानसभा के अध्यक्ष राव विरेंद्र सिंह ने मुख्यमंत्री बन प्रदेश की कमान संभाली। हरियाणवी संस्कृति के प्रबल पक्षधर राव विरेंद्र सिंह को उनके 'सहयोगी' दल- बदलू व अफसरवादी मित्रों ने चैन की सांस नहीं लेने दी। राव साहब के शासनकाल में दल-बदल चरम पर था। हरियाणा की राजनीति 'आया राम-गया राम' के नाम से कुविख्यात हुई। मात्र 7 महीने 27 दिन के भीतर राव विरेंद्र सिंह को कुर्सी छोड़नी पड़ी। प्रदेश को बुलन्दियों पर पहुंचाने के चाहवान दो मुख्यमंत्रियों की अवसरवादियों द्वारा राजनीतिक बलि लेने के पश्चात 21 नवंबर 1967 को राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। राष्ट्रपति शासन के दौरान 12 मई 1968 को मध्यावधि चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ, लेकिन चुनाव नतीजों के पश्चात विधायकों में खींचतान आरंभ हो गई। स्थिति को भांपते हुए कांग्रेस हाईकमान ने मामले को सुलझाने हेतु श्री गुलजारी लाल नंदा व पंडित भगवत दयाल शर्मा को अधिकृत किया। एक सप्ताह से अधिक समय तक लंबी बैठकें हुई। आम सहमति बनती-बिगड़ती गई। आखिर चौधरी बंसीलाल के नाम पर सहमति बनी। उल्लेखनीय है कि उस दौरान चौधरी बंसीलाल अधिक लोकप्रिय व चर्चित नेता नहीं थे, लेकिन नंदा जी से नजदीकियों के कारण चौधरी बंसीलाल की लॉटरी खुली, जिसे सुन प्रदेश वासी हतप्रभ रह गए।

चौधरी बंसीलाल ने प्रदेश में चल रहे 6 माह के राष्ट्रपति शासन के पश्चात 21 मई 1968 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। अपने कुशल नेतृत्व से चौधरी बंसीलाल ने 'आया राम-गया राम' वाली राजनीति पर नकेल कसी और प्रदेश के विकास के लिए सराहनीय कार्य किये। उनके सफल नेतृत्व में वर्ष 1972 में प्रदेश विधानसभा के आम चुनाव हुए, जिसमें चौधरी बंसीलाल पुनः मुख्यमंत्री बने। दबंग छवि व कुशल प्रशासक के रूप में चौधरी बंसीलाल ने अफसरशाही पर लगाम कसते हुए हरियाणा का कायाकल्प किया तथा केन्द्रीय सरकार में भी अपनी मजबूत पकड़ बनाई।

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें अपना विश्वस्त मानते हुए केंद्र में बुला लिया और उन्हें रक्षा मंत्रालय की कमान सौंपी। केंद्र से बुलावा आने पर भी चौधरी बंसीलाल ने हरियाणा की राजनीति में भी अपना दबदबा बरकरार रखा। दिनांक 01 दिसम्बर 1975 को उन्होंने अपनी राजगद्दी अपने अति विश्वसनीय श्री बनारसीदास गुप्ता को सौंपी। श्री गुप्ता, चौ. बंसीलाल के मार्गदर्शन में प्रदेश की जनता की सेवा करने लगे, लेकिन लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में चले देश व्यापी आंदोलन व आपातकाल की घोषणा के चलते प्रदेश में 29 अप्रैल 1977 से 20 जून 1977 तक राष्ट्रपति शासन लागू रहा। आपातकाल का संपूर्ण भारतवर्ष में घोर विरोध हुआ, जिसके चलते 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का सफाया हो गया। केंद्र में जनता सरकार के गठन के साथ ही प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया, लेकिन जून माह में प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और 21 जून 1977 को चौ. देवी लाल ने प्रदेश की कमान संभाली। प्रदेश की जनता एक ईमानदार, जुझारू, कर्तव्यनिष्ठ, किसान नेता के प्रदेश का मुख्यमंत्री के रूप में देख प्रसन्न थी। स्वच्छ छवि के चौ. देवीलाल ने किसान हितैषी के रूप में ख्याति प्राप्त की, लेकिन कुछ ही माह बीतने पर चौ. देवीलाल के विरुद्ध कुछ विधायकों ने बिगुल बजा दिया। एक अति महवाकांक्षी मंत्री द्वारा असंतुष्ट विधायकों को भारत दर्शन के नाम पर रिझाने हेतू प्रयास भी किए, लेकिन बाजी चौ. भजन लाल ने मारी। 28 जून 1979 को चौ. भजन लाल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गए। वक्त की नजाकत को भली-भांति भांपने में माहिर चौ. भजन लाल ने जनवरी 1980 में हुए लोकसभा चुनावों मे कांग्रेस के केंद्र पर काबिज होने पर प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी से हाथ मिलाते हुए दलबल सहित कांग्रेस में शामिल हो गए। प्रदेश में जनता पार्टी के मुख्यमंत्री के स्थान पर चौ. भजनलाल कांग्रेस पार्टी के मुख्यमंत्री के रूप में जाने गए। यानि पुरानी बोतल पर नई बोतल का लेबल।

19 मई 1982 को प्रदेश में पांचवीं बार विधानसभा के चुनाव हुए। पूर्ण बहुमत न होते हुए भी प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम जीडी तपासे द्वारा सबसे बडे़ राजनीतिक दल के नेता के रूप में चौ. भजनलाल को मुख्यमंत्री की शपथ दिलवा दी गई। राजनीति के खिलाड़ी के रूप में विख्यात चौ. भजनलाल ने तय समय सीमा के भीतर ही अपना बहुमत सिद्घ कर सबको अचम्भित कर दिया। विपक्षी नेता चौ. देवीलाल ने इसका घोर विरोध किया। उन्होंने अपना विरोध बरकरार रखा और जननायक के रूप में प्रसिद्घ चौ. देवीलाल द्वारा चलाए न्याय युद्घ के साथ समस्त हरियाणा जुड़ता चलता गया। हालातों को भांपते हुए कांग्रेस हाईकमान ने 5 जून 1986 को चौ. भजनलाल के स्थान पर चौ. बंसीलाल को मुख्यमंत्री बनाकर माहौल बदलने की चेष्टा की, लेकिन कामयाबी प्राप्त नहीं हुई। चौ. देवीलाल के न्याय युद्घ की आंधी को रोक पाना कठिन ही नहीं असंभव-सा लगता था। इसका प्रमाण 5 जून,1986 को हुए विधानसभा चुनावों में स्पष्ट देखा गया, जिसमें 78 सीटों पर लोकदल व उनकी सहयोगी पार्टियां भाजपा, सीपीआई, सीपीएम का कब्जा था। 20 जून 1987 को चौ. देवीलाल की ताजपोशी बड़ी धूमधाम व उल्लास पूर्ण माहौल में हुई। चौ. देवीलाल के सफल नेतृत्व में प्रदेश प्रगति की ओर अग्रसर हुआ। 'लोकराज-लोकलाज से चलता है' का नारा देने वाले चौ. देवीलाल प्रदेश की राजनीति के साथ-साथ देश की राजनीति में भी सक्रिय होने लगे। नवंबर 1989 के लोकसभा चुनावों में महवपूर्ण भूमिका निभाने वाले चौ. देवीलाल ने 2 दिसंबर 1989 को उपप्रधानमंत्री पद संभाला तथा हरियाणा की राजनीति व मुख्यमंत्री पद का दायित्व अपने सुपुत्र चौ. ओमप्रकाश चौटाला को सौंप दिया। चौ. ओमप्रकाश चौटाला उस समय विधानसभा के सदस्य नहीं थे। उनका 6 माह के भीतर विधायक बनना अनिवार्य था। चौ. देवीलाल द्वारा महम विधानसभा से त्यागपत्र देने पर खाली हुई सीट पर उपचुनाव हुए, लेकिन इस उपचुनाव में हुई हिंसक घटनाओं ने हरियाणा सरकार सहित देवीलाल परिवार की साख को ठेस पहुंचाई। मात्र 5 माह 22 दिन बाद श्री ओमप्रकाश चौटाला ने त्यागपत्र दे दिया और उपमुख्यमंत्री श्री बनारसी दास गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। मात्र 1 माह 19 दिन पश्चात श्री बनारसी दास गुप्ता से त्याग पत्र दिलवा, पुनः चौ. ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों के वशीभूत होकर मात्र 6 दिन पश्चात ही उपमुख्यमंत्री मा. हुकुम सिंह को मुख्यमंत्री पद पर बैठाना पड़ा। शिक्षक से मुख्यमंत्री बने मा. हुकुम सिंह द्वारा रिमोट खिलौना की भांति कार्य करने में आनाकानी करने पर उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर एक बार फिर चौ. ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हो गए। कुछ ही दिन पश्चात राज्यपाल से विधानसभा को भंग करने की सिफारिश भी कर दी। तत्कालीन राज्यपाल महामहिम धनिकलाल मंडल ने अपने विवेक से 6 अप्रैल 1991 को राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। इस प्रकार चौ. ओमप्रकाश चौटाला मात्र 15 दिन ही मुख्यमंत्री रहे। अब तक चौ. ओमप्रकाश चौटाला तीन बार मुख्यमंत्री बन चुके थे, लेकिन उनका कुल कार्यकाल मात्र 6 माह 12 दिन ही रहा। उनका बार-बार मुख्यमंत्री बनना और हटना पूरे देश में चर्चा का विषय रहा।

विपक्ष ने इस घटनाक्रम को चौ. ओमप्रकाश की पद लोलुपता व राजनीतिक अपरिपक्वता के रूप में पेश किया। जिसके फलस्वरूप 10 मई 1991 को हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस बहुमत से विजयी हुई और राजनीति के पी.एच.डी. माने जाने वाले चौ. भजनलाल ने मुख्यमंत्री पद संभाला। केंद्रीय सरकार को भरपूर सहयोग प्राप्त प्रदेश सरकार ने चौ. भजनलाल के नेतृत्व में प्रदेश में अनेक उल्लेखनीय कार्य किए। विकास कार्यों के स्मूथ चलने के बावजूद कंञग्रेस का जनाधार घटने लगा और चौ. बंसीलाल के नेतृत्व वाली हरियाणा विकास पार्टी के वोट बैंक का विकास होने लगा। विधानसभा का कार्यकाल पूर्ण होने पर दिनांक 27 अप्रैल 1996 को विधानसभा के आम चुनाव हुए। जिसमें हविपा-भाजपा गठबंधन को 44 सीटें प्राप्त हुई। कुछ निर्दलीय विधायकों का समर्थन प्राप्त कर चौ. बंसीलाल एक बार फिर मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हो गए। नशा मुक्ति कानून लागू होने पर शराब माफिया ने अपना जाल पूरे प्रदेश में फैसला दिया, जिससे प्रदेश सरकार सहित पुलिस प्रशासन को शक की निगाह से देखा जाने लगा। शराब माफिया के बेकाबू होने का ठिकरा दोनों सााधारी पार्टियां(हविपा-भाजपा) एक-दूसरे पर फोडऩे लगी, क्योंकि आबकारी विभाग का मंत्रालय भाजपा विधायक के पास था। चौ. बंसीलाल को तानाशाही व अडि़यल स्वभाव के कारण भाजपा विधायकों का स्वाभिमान आड़े आने लगा। जिसके चलते भाजपा ने बंसीलाल सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया, लेकिन अल्पमत में हुई बंसीलाल सरकार को कांग्रेस ने समर्थन दे बचा लिया, लेकिन कुछ ही दिन पश्चात कांग्रेस ने भी बंसीलाल सरकार को मंझधार में छोड़ दिया। इसी दौरान हविपा के कुछ विधायकों ने नया दल बना, चौ. ओमप्रकाश चौटाला को अपना समर्थन दे दिया तथा भाजपा ने भी चौटाला में अपनी आस्था जता दी। 24 जुलाई 1999 को चौ. ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री बने, लेकिन लगभग 6 माह के भीतर ही विधानसभा भंग कर चुनाव करवाने की सिफारिश राज्यपाल महोदय को कर दी। 22 फरवरी 2000 को हुए विधानसभा के आम चुनावों में चौ. ओमप्रकाश चौटाला के नेतृत्व वाली इंडियन नैशनल लोकदल को 47 व सहयोगी भाजपा को 6 सीटें प्राप्त हुई। इस प्रकार चौ. ओमप्रकाश चौटाला लगातार मुख्यमंत्री पद आसीन रहे। इस दौरान चौटाला नेतृत्व में प्रदेश में खूब विकास कार्य हुए। छोटे व सीमित मंत्रीमंडल व दोनों पुत्रों के सहयोग से प्रदेश की अफसरशाही पर जबरदस्त पकड़ बनाते हुए अपना कार्यकाल पूरा किया, लेकिन प्रदेश में गुंडा तत्वों का प्रभाव बढ़ने से प्रदेश की जनता में भय व्याप्त रहा,जिसका खामियाजा 3 फरवरी 2005 को हुए विधानसभा चुनावों में इनेलो को भुगतना पड़ा।

इस चुनाव में कांग्रेस 67 सीटें प्राप्त करने के बावजूद मुख्यमंत्री का फैसला नहीं कर पा रही थी। पूर्व मुख्यमंत्री चौ. भजनलाल व तत्कालीन सांसद श्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा में मुख्यमंत्री पद को लेकर युद्घ छिड़ गया। अंत में फैसला न होता देख विधायकों ने मुख्यमंत्री पद नामक गेंद को कांग्रेस आलाकमान के पाले में सरका दी। कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने अपने विवेक से सांसद श्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मुख्यमंत्री पद संभालने की जिम्मेदारी सौंपी। 5 मार्च 2005 को श्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने प्रदेश की कमान संभाली। मुख्यमंत्री श्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में प्रदेश नंबर वन बनने की ओर अग्रसर है। श्री हुड्डा समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने कामयाब होते नजर आ रहे हैं। जिसका स्पष्ट उदाहरण हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों के नतीजों को देखकर लगाया जा सकता है।

लालों के लाल

हरियाणवी लोग उसी सपूत की कद्र करते है,जो जनता के बीच रहकर संघर्ष करता है। पिता के द्वारा पकाई गई फसल का आनंद केवल सत्ता के दौरान ही उठाया जा सकता है। अगली फसल उगाने के लिए स्वयं मेहनत करनी ही पड़ती है, इस बात से हरियाणा में सत्ता का सुख भोग चुके राजनेताओं के सपूत भली-भांति परीचित हैं।

प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पण्डित भगवत दयाल शर्मा की भान्ति शान्त स्वभावी उनके सुपुत्र श्री राजेश शर्मा प्रदेश विधानसभा के दो बार सदस्य चुने गए व चेयरमैन पद पर भी विराजमान रहे। हरियाणवी संस्कृति के प्रबल पक्षधर व प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री राव विरेंद्र सिंह के सुपुत्र राव इन्द्रजीत सिंह अपने पिता की भान्ति ही सशक्त नेतृत्व की क्षमता रखते हैं। राव विरेंद्र सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के पश्चात महेन्द्रगढ़ लोकसभा क्षेत्र से चार बार सांसद भी रहे। राव विरेन्द्र सिंह के राजनीतिक उाराधिकारी उनके सुपुत्र राव इन्द्रजीत सिंह भी महेन्द्रगढ़ लोकसभा क्षेत्र से दो बार सांसद चुने गए तथा डा. मनमोहन सिंह के प्रथम प्रधानमंत्री काल में रक्षा मंत्रालय जैसे महवपूर्ण मंत्रालय के राज्यमंत्री बनकर सराहनीय कार्य किए। वर्तमान में नए परीसिमन के अनुसार गुडगांव लोकसभा क्षेत्र से एक बार फिर कांग्रेस पार्टी से सांसद चुने गए।

मार्च 2005 मुख्यमंत्री पद के सक्षम एवं प्रबल दावेदार चौधरी भजनलाल को राजगद्दी न मिलने से क्षुब्ध उनके छोटे सुपुत्र चौधरी कुलदीप बिश्नोई ने कांग्रेस हाईकमान के विरुद्ध विरोध का बिगुल बजा दिया। हालांकि चौधरी भजनलाल के बड़े सुपुत्र श्री चंद्रमोहन बिश्नोई प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बनकर सत्ता की मलाई का स्वाद चखते रहे। कांग्रेस द्वारा श्री चंद्रमोहन बिश्नोई को प्रदेश का उपमुख्यमंत्री पद देना चौधरी भजनलाल को शांत करने का एक प्रयास था, लेकिन भजनलाल परिवार उपमुख्यमंत्री की कुर्सी से संतुष्ट नहीं हो पाया। श्री भजनलाल के आशीर्वाद से श्री कुलदीप बिश्नोई ने कांग्रेस को अलविदा कहते हुए 2 दिसंबर 2007 को मुख्यमंत्री चौं. भूपेंद्र सिंह हुड्डा के गृह क्षेत्र रोहतक में जनहित रैली कर खुद को होनहार राजनेता के रूप में स्थापित किया। जनहित रैली में उमड़े जनसमूह ने सभी राजनीतिक दलों के होश फाख्ता करने का काम किया। बिश्नोई की अगुवाई में बनी हरियाणा जनहित कांग्रेस (भजनलाल) में अनेक पूर्व मंत्री, पूर्व विधायकों ने आस्था जताई। ''कुलदीप चले चौपाल की ओर'' के कार्यक्रम के तहत श्री कुलदीप बिश्नोई ने लोगों के दिलों में जगह बनाने का प्रयास किया है लेकिन हजकां कार्यकर्ताओं के आपसी कलह पर पार्टी सुप्रीमों नकेल कसने में नाकाम साबित हुए, जिसके चलते मई 2009 में हुए लोकसभा चुनावों में श्री कुलदीप बिश्नोई का जादू नहीं चल पाया, हरियाणा की दस सीटों में से मात्र हिसार लोकसभा सीट से ही चौ. भजन लाल चुनाव जीत सके। हरियाणा की जनता ने चौ. भजन लाल की जीत को हजकां पार्टी की जीत न मानते हुए चौ. भजनलाल की व्यक्तिगत छवी को जीत का कारण माना।

चौ. देवीलाल के राजनीतिक वारिश चौ. ओमप्रकाश चौटाला ने छह वर्ष से अधिक समय तक मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए विधायकों सहित प्रशासनिक अधिकारियों पर मजबूत पकड़ बनाते हुए प्रदेश को तरक्की की राह पर आगे बढ़ाया। वहीं चौ. ओमप्रकाश चौटाला के दोनों सुपुत्र श्री अजय सिंह चौटाला और श्री अभय सिंह चौटाला ने उनका भरपूर सहयोग दिया। दादा-पिता के अनुभवों व मार्गदर्शन से दोनों भाइयों ने हरियाणा की जनता के साथ संपर्क बनाए रखा। पिछले दिनों श्री अजय सिंह चौटाला द्वारा 14 जनवरी, 2009 को महेंद्रगढ़ के गांव मलिकपुर से पंचकुला तक तय की गई जनआक्रञेश यात्रा ने उन्हें एक संर्घषशील एवं सफल नेता के रूप में स्थापित किया। इस पदयात्रा का पूरे हरियाणा में भरपूर स्वागत हुआ। जनआक्रञेश रैली ने जिस ओर भी रुख किया वहीं गांव-शहर इनेलो कार्यकर्ताओं के बैनरों व हरी झडि़यों से सरोबार हो गया। श्री अजय चौटाला अपने दादा-पिता की भांति जननेता के रूप में स्थापित हुए। वहीं श्री अभय सिंह चौटाला की प्रदेश में बात के धनी के रूप में पहचान बनी हुई है।

चौ. बंसीलाल के राजनीतिक उत्तराधिकारी श्री सुरेंद्र सिंह ने अपने पिता के मार्गदर्शन में व्यापक जनाधार बनाया। दुर्भाग्यवश उनका निधन हो गया और इस पश्चात उनकी धर्मपत्नी श्रीमती किरण चौधरी ने स्वर्गीय श्री सुरेंद्र सिंह का सपना पूरा करने के लिए तोशाम से उपचुनाव जीता। श्रीमती किरण चौधरी ने हरियाणा में मंत्री पद संभाला और पति की भांति जनता की सेवा की। राजनीति के शीर्ष पदों की शौभा बढ़ा चुकी श्रीमती किरण चौधरी ने काग्रेंस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गान्धी से अपने घनिष्ठ संबन्धों के चलते अपनी सुपुत्री श्रुति चौधरी के लिए भिवानी-महेंन्द्रगढ़ लोकसभा क्षेत्र के लिए कांग्रेस की टिकट प्राप्त की व हरियाणा प्रदेश के अत्यन्त प्रभावशाली राजनीतिक परिवार के युवराज श्री अजय चौटाला को परासत कर लोकसभा पहुंचाआ। विरासत में मिले राजनीतिक अनुभव से श्रुति चौधरी एक तेज-तर्रार युवा नेत्री के रूप में उभर कर जनता के सामने आई हैं।

प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों को पीछे छोड़ने वाले वर्तमान मुख्यमंत्री चौ. भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पुत्र तथा स्वतंत्रता सेनानी एवं पूर्व मंत्री श्री रणबीर सिंह हुड्डा के पौत्र सांसद श्री दीपेंद्र सिंह हुड्डा भी दादा-पिता की भांति राजनीतिक की परिभाषा को भली-भांति जानते हैं। अपने पिता मुख्यमंत्री चौ. भूपेंद्र सिंह हुड्डा के आर्शीवाद से सांसद श्री दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने अपने संसदीय क्षेत्र में विकास कार्यों की झड़ी लगाकर लोगों की वाहावाही लूटने में कामयाब होने वाले श्री दीपेन्द्र हुड्डा मई 2009 के लोकसभा चुनावों में रिकार्ड मतों से विजयी हुए। मृदुभाषी व पढ़े लिखे युवा नेता के रूप में श्री दीपेंद्र हुड्डा की आज प्रदेश में खास पहचान बना ली है।

विधानसभा के अतर्गत आने वाले गावो की सूची, लोहारु, बवानी खेडा, तोशाम, भिवानी।

54.लोहारूसामान्य
55.बढ़डासामान्य

57.भिवानीसामान्य
58.तोशामसामान्य
59.बवानी खेड़ाआरक्षित
लोहारू-54

लोहारू विधानसभा क्षेत्र में आने वाले गांव
नलोई, बड़वा, रूञ्पाणा, ढ़ाणी, गुरेरा, देवसर, किकराल,धूलकोट, खेड़ा, बख्तावरपुरा, गैन्डावास, ढ़ाणी सिलावली, लीलस, बुधशैली,मोहिला, शेर पूरा मजरा मोहिला, खरकड़ी, गढ़वा,घघांला, सहनिवास मजरा झुम्पां कलां, झूम्पाकलां, झूम्पा खुर्द, मोतीपुरा मजरा झुम्पाकलां,बिधवान, गुढ़ा, कालोद, तलवानी,कलाली, ढ़ाणी भाकरान,मतानी, मन्ढोली खुर्द, सिवाच, मन्ढोली कलां, सिधनवां, सलेमपुर, हरियावास, गोपालवास, सुरपुरा कलां, सुरपुरा खुर्द, मिठी,मोरका, गिरवा, पातवान, गोकलपुरा, कासनी खुर्द, कासनी कलां, नुनसर, शहरयारपुर, ओबरा, बैरान, लाडावास, बिधनोई,सेरला, बहल, सुधीवास,सिरसी, सोरडा कदीम, शहजमानपुर, सरोडा जदीद, चहड़ खुर्द, बिठन, बुढेड़ा, अमीरवास, बड़दू, कुडल, कुडलवास, अलाऊदीनपुर, मोहम्मद नगर, चहड़ कलां, बुढेड़ी, पाजु, नांगल, गारनपुरा, नकीपुर, ढि़घावा जाटान, ढ़ाणी लक्षमन, खरकड़ी, पहाड़ी, सेहर, बराहलू,हसनपुर, सिंघानी,बसीरवास, झांझड़ा, दमकौरा, गोठड़ा, गिगनाऊ, कुशलपुरा, ढाणी टोडा मजरा लोहारूञ् बैरून, लोहारू वेरून हदूद कमेटी, लोहारू, बारवास, बिसलवास, गागड़वास, फरटिया केहर,फरटिया भीमा, रहीमपुर, फरटीया ताल, आजमपुर, ढ़ाणी ढोला, अहमदवास, सोहासड़ा।

बाढ़डा-55
बाढ़डा विधानसभा क्षेत्र में आने वाले गांव
लाडावास, द्वारका, जीतपुरा,भारीवास,उमरवास, काकड़ोली, रहड़ोदी कलां, रहड़ोदी खुर्द, बिन्द्रावन, बिलावल, पिचोपा कलां,सीसवाला, मेहड़ा, खेड़ी बार,खेड़ी बूरा, कलियाणा, मन्दोली, घसौला, टिकान कलां, ढाणी फोगाट,पातुवास, कपूरी, बलकरा, कलाली, झोझू कलां, बादल, असावरी, गुडाना, कुब्जा नगर,टोड़ी, निहालगढ़ मजरा टोडी, पिचोपा खुर्द, मान्ढी हरिया, मान्ढी केहर, हुई, जगराम बास, काकड़ोली हट्टी,काकड़ोली हुकमी, श्याम कल्याण, कारी तोखा, डान्डमा, कारी आदू, सिरसली मजरा भोपाली, भोपाली,कारी, गोपी, डालावास, पंचगांव, बाढडा, जेवली, मान्ढी पिरानु, बेरला, रामबास, झोझू खुर्द, बलाली, आबिदपुरा, डाढ़ीबाना, डाढ़ी छीलर, मकड़ानी, मोड़ी, खेड़ी सनवाल, महराना, गोठड़ा, सन्तोखपुरा, मकड़ाना, दुधवा, चांगरोड़, जावा, चन्देनी, रामलवास, रूदड़ोल, कान्हड़ा, किसकन्धा, नीमड़, चान्दवास, हंसावास, भाण्डवा,कारी धारणी, गोविन्दपुरा, आर्य नगर मजरा गोविन्दपुरा, लाड, सूरजगढ़, हंसावास कलां, नान्धा,धनासरी, कादमा, दगड़ोली, माई कलां, माई खुर्द, बधवाना, दातोली,चिडि़या, नौसवा, बालरोड, पालड़ी, उण निकट बधवाना, बडराई, नौरंगावास राजपुतान, ढाणी राजाश्री माजरा नौरंगावास, गोपालवास, नौरंगाबास जाटान।


भिवानी-57

भिवानी विधानसभा क्षेत्र में आने वाले गांव
भिवानी, कौन्ट, पर्णपुरा मजरा कौन्ट, नौरंगाबाद, बामला, फुलपुरा, सांगा, उमरावत, नांगल, ढाणा लाडनपुर, हालुवास, देवसर, हालुवास माजरा देवसर, गोबिन्दपुरा माजरा देवसर, घिराना माजरा देवसर, घिरानां कलां,पहलादगढ़, नवां माजरा राजगढ़, नंवा, राजगढ़, नीमड़ीवाली,ढाणा नरसान, अजीतपुरा, धारेडू, कायला, बडाला, मानहेरू्, मधमाधवी, गोरीपुर, कितलाना,रूपगढ़, नन्दगांव।


तोशाम-58

तोशाम विधानसभा क्षेत्र में आने वाले गांव
चनाना, गारनपुरा कलां, गारनपुरा खुर्द, पिंजोखरा, खानक, किरावड़,भुरटाना, अलखपुरा, तोशाम, बागनवाला, डाडम,छपार रांगडान,छपार जोगियान, ढ़ाणी दरियापुर मजरा दरियापुर, दरियापुर, ढ़ाणी मिरान मजरा मिरान, मिरान, बिड़ोला, सरल, ढ़ाणी सरल, झांवरी, खरकड़ी, सागवान, दांग कलां, धारण, थिलोड, पटौदी, बादलवाला, भारीवास, झुली,भेरा, सिढ़ान, देवावास, खावा, मंढ़ान, जैनावास,सण्डवा, आलमपुर, दुल्हेड़ी, निंगाना खुर्द, ढ़ाणी रिवासा मजरा रिवासा, रिवासा, बिरन, बापोड़ा, दांग खुर्द, राजपुरा खरकड़ी, भिवानी लोहड़, दिनोद, ढाणी बिरन मजरा बजीना, बजीना, ढाणी माहू,सुंगरपुर, खारियावास, बुसान, कतवार, ढ़ाणी कतवार, ईशरवाल, रोढ़ां, हसान, साहलेवाला, धारवाणवास, खापड़वास, मनसरवास, जीतवानबास, केहरपुरा मजरा कोहाड़, कोहाड़, मालवास कोहाड़, मालवास देवसर,कुञ्सम्भी, लेघा हेतवान, लेघां भाना, हेतमपुरा, लहलाना मजरा हेतमपुरा,ढाणी ब्राहमणन, बाबरवास, चन्दावास, झुन्डावास, कैरू्, लाडियावाली, देवराला, ईन्दीवाली, बिजलानाबास, ढ़ाब ढ़ाणी, ढ़ांगर, भानगढ़, टिटानी, लुहानी, चैनपुरा मजरा लुहानी, लुहानी, आसलवास दुबिया, गोलपुरा मजरा आसलवास मरहटा, आसलवास मरहटा, भाखड़ा, हरिपुर मजरा भाखड़ा,पत्थरवाली मजरा ढाणी ब्राहमणन, नंगला, गोलागढ़, खैरपुरा मजरा गोलागढ़, आजाद नगर,जुई खुर्द, जुई कलां, लालावास, पोहकरवास।


बवानी खेड़ा-59

बवानी खेड़ा विधानसभा क्षेत्र में आने वाले गांव
जीताखेड़ी मजरा बड़सी, औरंगनगर, दुर्जनपुर मजरा बड़सी, मिलकपुर मजरा बड़सी, सिकन्दपुर मजरा बड़सी, ढाणी कुञ्शाल मजरा बड़सी, ढाणी चोरटापुर मजरा बड़सी,ढाणी केशला मजरा बड़सी,बड़सी,अलखपुरा मजरा सिवाना, सिवाना, खेड़ी दौलतपुर मजरा सिवाना, भैणी जाटान मजरा कुंगड,भैणी रांगड़ान मजरा कुंगड, कुंगड़, मुन्ढाल कलां,मुन्ढाल खुर्द, सुखपुरा मजरा, तालु, सिवाडा,जमालपुर, पपोसा,सीपर, रोहनात, रतेरा, बोहल, पुर, धनाना, जताई, बड़ेसरा, मण्ढ़ाणा, लोहारी जाटू, सुमड़ा खेड़ा, बलियाली,रामपुरा, सुई, प्रेम नगर,तिगड़ी,घुसकानी, चांग, मिताथल,तिगड़ाना, गुजरानी, रिवाड़ी खेड़ा, ढ़ाणी हरसुख मजरा रिवाड़ी खेड़ा, सै,केलंगा, खरक खुर्द, खरक कलां,सरसा, कालुवास, पालुवास, नाथुवास,निनान।


सरकारी स्कूल फेल नहीं हुए, इन्हें चलाने वाली सरकारें फेल हुई हैं

सरकारी स्कूल फेल नहीं हुए, इन्हें चलाने वाली सरकारें फेल हुई हैं
सरकारी स्कूलों को बहुत ही प्रायोजित तरीके से निशाना बनाया गया है. प्राइवेट स्कूलों की समर्थक लॉबी की तरफ से बहुत ही आक्रामक ढंग से इस बात का दुष्प्रचार किया गया है कि सरकारी स्कूलों से बेहतर निजी स्कूल होते हैं और सरकारी स्कूलों में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं बची है।
शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू हुए 9 साल पूरे हो चुके हैं लेकिन आज की स्थिति में 90 फीसदी से अधिक स्कूल आरटीई के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं. इस दौरान सरकारी स्कूलों की स्थिति और छवि दोनों खराब होती गई है.

इसके बरक्स निजी संस्थान लगातार फले-फूले हैं. इससे पता चलता है कि कानून होने के बावजूद भी सरकारें इसकी जिम्मेदारी उठा पाने में नकारा साबित हुई हैं. अब वे स्कूलों को ठीक करने की अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटते हुए इन्हें भी बंद करने या इनका मर्जर करने जैसे उपायों पर आगे बढ़ रही हैं.
दरअसल सरकारी स्कूल फेल नहीं हुए हैं बल्कि यह इसे चलाने वाली सरकारों और उनकी सिस्टम का फेलियर है. तमाम उपेक्षाओं और आलोचनाओं से घिरे रहने के बावजूद सरकारी स्कूल प्रणाली के हालिया उपलब्धियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
आज इनका विशाल नेटवर्क देश के हर कोने में फैल गया है और वे इस देश के सबसे वंचित और हाशिये पर रह रहे समुदायों के बच्चों की स्कूलिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं.
रुतबा घटा लेकिन कायम है महत्व
पिछले तीन दशकों से भारत में स्कूली शिक्षा का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है और प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की पहुंच सार्वभौमिक हो गई है. इसने भारत में स्कूली शिक्षा को सर्वव्यापी बना दिया है.
आज देश के हर हिस्से में सरकारी स्कूलों का जाल बिछ चुका है. आप देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए दूरस्थ और दुर्गम क्षेत्रों में भी आपको सरकारी स्कूलों की उपस्थिति देखने को मिल जाएगी. एक ऐसे देश में जहां सदियों से ज्ञान और शिक्षा पर कुछ खास समुदायों का ही एकाधिकार रहा है यह एक बड़ी उपलब्धि है.
आज सही मायनों में भारत में स्कूली शिक्षा का सार्वभौमिकरण हो गया है. एक देश के रूप में हमने सभी तक शिक्षा की पहुंच के लक्ष्य को करीब-करीब हासिल कर लिया है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि आज देश के 99 प्रतिशत परिवार सावर्जनिक शिक्षा की पहुंच की दायरे में आ चुके हैं.
इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण कि इस व्यवस्था के तहत किसी की जाति, लिंग या धर्म पर ध्यान दिए बिना सभी को शामिल करने पर जोर दिया जाता है. इस उपलब्धि में ख़ास ये है कि इसके सबसे बड़े लाभार्थी ऐसे समुदाय हैं जिनकी पहली पीढ़ी तक शिक्षा की पहुंच बनी है.

जाहिर है यह सब सरकारी स्कूलों के भरोसे ही संपन्न हुआ है. तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज भी करीब 50 प्रतिशत शहरी और 80 फीसदी ग्रामीण बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ रहे हैं
लेकिन विडम्बना देखिये, ठीक इसी दौरान सरकारी स्कूलों पर से लोगों का भरोसा भी घटा है. लंबे समय से असर (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) और कई अन्य सरकारी व गैर सरकारी आंकड़े इस बात को रेखांकित करते आए हैं कि सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था की विश्वशनीयता कम हो रही है और प्राथमिक स्तर पर सरकारी स्कूलों में बच्चों के सीखने की दर में लगातार गिरावट आ रही है।
शिक्षा का हक
हमारी शिक्षा व्यवस्था को लेकर पूरी बहस इसके बाजारीकरण या फिर इसके मुफ्त होने तक ही उलझ कर रह गई है जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) जी के अनुसार, शिक्षा एक मौलिक अधिकार है जिसकी वजह से इसे लाभ कमाने का व्यवसाय नहीं बनाया जा सकता. हालांकि आज शिक्षा को एक ‘व्यवसाय’ या गरीबों के लिए मुफ्त सब्सिडी के रूप में देखा जाता है.
हमारी शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप ही ऐसा है जो सबको साथ लेकर चलने में नाकाम है. दरअसल भारत में दोहरी शिक्षा व्यवस्था लागू है जिसके तहत एकतरफ सरकार द्वारा संचालित या सहायता प्राप्त स्कूल है तो दूसरी तरफ भांति-भांति के निजी स्वामित्व वाले स्कूल है जो 100 रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक फीस वसूलते है.
जिला शिक्षा सूचना प्रणाली (डाइस) के आंकड़ों के मुताबिक देश में 11 लाख सरकारी स्कूल 19.77 करोड़ बच्चों को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा दे रहे हैं. इसके बरक्स लगभग तीन लाख निजी स्कूल हैं, जो करीब 8.5 करोड़ बच्चों को शिक्षा प्रदान कर रहे हैं.
हालांकि निजी स्कूल तेजी से बढ़ रहे हैं और अगर यही रफ्तार रही तो संख्या के मामले में भी वे हावी हो जाएंगे।
गौरतलब है कि 18 अगस्त 2015 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों की ख़राब स्थिति पर चिंता जताते हुए एक अभूतपूर्व आदेश जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि सरकारी कर्मचारी, अर्ध सरकारी कर्मचारी, स्थानीय निकाय के प्रतिनिधि, न्यायपालिका और अन्य सभी लोग जो सरकारी कोष से वेतन या लाभ लेते हैं को अपने बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी स्कूलों में ही पढ़ना पड़ेगा.
अपने आदेश में अदालत ने यह भी कहा था कि इस नियम का उल्लंघन करने वालों के लिए सजा का प्रावधान किया जाए. इस आदेश का पालन करने के लिए अदालत ने छह माह का समय दिया था लेकिन इतना लंबा समय बीत जाने के बावजूद भी सरकारों द्वारा इस पर कोई अमल नहीं किया गया.
इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को अवमानना नोटिस जारी किया है. जाहिर है न्यायपालिका ने समस्या की जड़ पर ध्यान दिया है जिस पर सरकारों और समाज को भी ध्यान देने की जरूरत है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

1952 में हुए देश के पहले आम चुनाव से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक, वो प्रत्याशी जो बिना किसी दल के सहारे संसद की सीढ़ियों तक पहुंचे.

57 सालों के दौरान 42 से गिरकर 3 तक पहुंची निर्दलीय सांसदों की संख्या

1952 में हुए देश के पहले आम चुनाव से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक, जानिए अब तक कितने निर्दलीय प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा चुके हैं. वो प्रत्याशी जो बिना किसी दल के सहारे संसद की सीढ़ियों तक पहुंचे.














आजादी के इस महानायक से कांप उठे थे अंग्रेज, डर की वजह से 10 दिन पहले दे दी थी फांसी

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आइये जानते हैं, भारतीय राजनीति में सात प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों के 'चुनाव चिन्हों' का इतिहास

भारत में दलों को चुनाव चिन्ह आवंटित करने का मुख्य उद्देश्य मतदाताओं और चुनाव में खड़े उम्मीदवारों की मदद करना है। मतदाता चुनाव चिन्हों की मदद से राजनीतिक पार्टियों को याद रखते हैं और उन्हें वोट देते हैं। जब कोई राजनीतिक पार्टी अपने लिए चुनाव चिन्ह का चयन करती है तो इसके संबंध में अंतिम निर्णय निर्वाचन आयोग का ही होता है। यहां हम भारत की सात राष्ट्रीय पार्टियों को चुनाव चिन्ह मिलने का इतिहास जानेंगे।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस , 1885
चुनाव चिन्ह: हाथ का पंजा नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी था, जिसने आम लोगों, मुख्य रूप से किसानों के साथ बेहतर तालमेल स्थापित किया था। 1969 में पार्टी विभाजन के बाद चुनाव आयोग ने इस चिन्ह को जब्त कर लिया था। कामराज के नेतृत्व वाली पुरानी कांग्रेस को तिरंगे में चरखा जबकि इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस को गाय और बछड़े का चुनाव चिन्ह मिला था। 1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद चुनाव आयोग ने आइएनसी के गाय-बछड़े के चिन्ह को जब्त कर लिया था। इसी दौरान संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी रायबरेली सीट से हार गई थीं, जिसके कारण परेशान होकर वह शंकराचार्य स्वामी चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती से आर्शीवाद लेने गईं। उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर इंदिरा गांधी को आर्शीवाद दिया, जिससे इंदिरा के मन में हाथ के पंजे को चुनाव चिन्ह बनाने का विचार आया और तब उन्होंने हाथ के पंजे को ही चुनाव चिन्ह बनाया
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी , 1990
चुनाव चिन्ह: घड़ी पार्टी का चुनाव चिन्ह नीले रंग की रेखीय घड़ी है, जिसमें नीचे दो पाए और ऊपर अलार्म का बटन है, यह बड़ी दस बजकर दस मिनट का समय दिखाती है। राष्ट्रवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह घड़ी इसलिए है क्योंकि यह दर्शाता है कि कितनी भी मुश्किलें क्यों न हो एनसीपी अपने सिद्धांतों के लिए दृढ़ता के साथ संघर्ष करती है।
अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस, 1998
चुनाव चिन्ह: जोहरा घास का फूल पं. बंगाल में ममता बनर्जी की इस पार्टी का नारा है मां, माटी और मनुष्य, इसका चुनाव चिन्ह फूल और घास है जो कि माटी से जुड़ा है और यह मातृत्व या हमारे राष्ट्रवादी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। चुनाव चिन्ह में किए जाने वाले साधारण फूल इंगित करते हैं कि एआइटीएमसी समाज के उन वर्गों का समर्थन करती है जो आम तौर पर निम्न वर्ग के हैं और शोषित हैं।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी,  1925
चुनाव चिन्ह: बाली हंसिया भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एक साम्यवादी दल है और 1952 से ही बाली-हंसिया इसका चुनाव चिन्ह है। इस चुनाव चिन्ह को अपनाने के पीछे का कारण यह था कि यह पार्टी भूमि सुधार को बढ़ावा देती थी और किसानों की स्थिति में परिवर्तन लाना चाहती थी। ट्रेड यूनियन आंदोलन में भी सीपीआइ की राजनीतिक विचारधारा का एक बड़ा हिस्सा शामिल रहा है।
बहुजन समाज पार्टी,  1984
चुनाव चिन्ह: हाथी बसपा ने अपना चुनाव चिन्ह इसलिए रखा क्योंकि हाथी शारीरिक शक्ति और ऊर्जा का प्रतीक होता है। यह एक विशाल पशु है और आमतौर पर शांत रहता है। जैसा की बहुजन समाज का अर्थ है वह समाज जिसमें दलित वर्गों की संख्या ज्यादा है। ऊपरी जातियों और उनके उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष को हाथी के माध्यम से दर्शाया गया है।
माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी,  1964
चुनाव चिन्ह: हंसिया हथौड़ा वामपंथियों ने यह चुनाव चिन्ह इस लिए चुना क्योंकि यह दर्शाता है कि सीपीआइ (एम) किसानों एवं मजदूरों की पार्टी है, जो खेतों में काम करते हैं और साधारण जीवन जीते हैं। यह पार्टी पूरे भारत में पूंजीवादी और वैश्वीकरण की नीतियों और योजनाओं का विरोध करती है।

'आया राम, गया राम' की कहावत कैसे शुरू हुई, कोन था आया राम गया राम, जानिए पूरी कहानी????

1 नवंबर 1966 को पंजाब ने 44 हजार 212 वर्ग का बंजर और अविकसित टुकड़ा देकर हरियाणा को अलग किया था.


1 नवंबर 1966 को पंजाब ने 44 हजार 212 वर्ग का बंजर और अविकसित टुकड़ा देकर हरियाणा को अलग किया था. उसी हरियाणा को राजनीति और यहां की मेहनतकश जनता ने आज भारत के शीर्ष राज्यों में पहुंचा दिया है. हरियाणा की राजनीति के पूत के पांव पालने में ही दिखने लगे थे. उसी समय से ही दल-बदल और दिल-बदल की राजनीति शुरू हो गई थी. हालत ये हो गई कि उस समय के दो नेता आया राम और गया राम ने इतनी बार पार्टियां बदली कि दल-बदल कानून बनाना पड़ा और दल-बदलने वाले नेताओं को लेकर कहावत भी बन गई- आया राम, गया राम.

हरियाणा से निकलकर देश की राजनीति में रम गया 'आया राम, गया राम'

सायद ही देश का कोई क्षेत्रीय या राष्‍ट्रीय दल ऐसा है, जिसमें कोई न कोई 'आया राम, गया राम' न हो।राजनीति को कैसे मिला 'आया राम, गया राम''आया राम, गया राम' के पीछे की कहानी बेहद दिलचस्‍प है। यह पूरा वाकया 1967 में हरियाणा के हसनपुर से विधायक गया लाल के इर्द-गिर्द घूमता है। उस समय निष्‍ठा बदलने का खेल सरकार गिराने और बनाने से जोड़कर देखा जाता था। इसी दौर में गया लाल महज 24 घंटे के अंदर तीन दलों में शामिल हुए थे। पहले वे कांग्रेस से यूनाइटेड फ्रंट में गए, फिर कांग्रेस में लौटे और फिर नौ घंटे के अंदर ही यूनाइटेड फ्रंट में शामिल हो गए। उस समय कांग्रेस नेता बीरेंद्र सिंह ने कहा था, 'गया राम, अब आया राम है।' इसके बाद से ही दलबदलू नेताओं के लिए यह मुहावरा बन गया। जब भी कोई नेता किसी अन्‍य दलों का दामन थामता, लोग उसे मजकिया तौर पर 'आया राम, गया राम' कहकर बुलाने लगे।गया लाल के बेटे का दावा, 'मेरे पिता ने कभी नहीं बदला दल'हालांकि, गया लाल के बेटे उदय भान इन आरोपों को साफ नकारते हैं। उनका कहना है कि उनके पिता ने कभी भी राजनीतिक दल नहीं बदला। हालात के अनुसार, जरूर उन्‍होंने दूसरे दलों का समर्थन किया। उदय का कहना है कि असल में संसद में उमा शंकर दीक्षित ने पहली बार 'आया राम, गया राम' बोला था। बाद में इसे मेरे पिता से जोड़ दिया गया। वैसे यह मुहावरा तो लोहारू के विधायक रहे हीरानंद आर्य पर फिट बैठता है, जिन्होंने सात बार राजनीतिक दल बदला था।





फ्लैशबैक में चलें तो इसकी क्रांतिकारी शुरुआत हरियाणा से हुई. 1967 में. दलबदलुओं के पितामह गयालाल हुए. फिलहाल कांग्रेस के नेता हैं. तब भी ये कांग्रेस के नेता थे. हसनपुर, जिला पलवल से MLA थे. एक रात कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी में चले गए. रात में ही वापस कांग्रेस में आ गए. 9 घंटे में फिर जनता पार्टी में चले गए. लेकिन फिर जब कांग्रेस में आए तो कांग्रेस नेता राव बीरेंद्र सिंह ने कहा कि “गया राम अब आया राम हैं.” तब से आया राम गया राम टर्म ही यूज किया जाने लगा दलबदलुओं के लिए.
इनके अलावा एक और महापुरुष भारतीय राजनीति में, हरियाणा की धरती पर हुए हैं. 
बात 1967 की है। गया लाल हरियाणा कांग्रेस के विधायक थे। उन्हें राजनीति की गहरी समझ थी और इसी समझ का फायदा उन्होंने उठाया और एक ही दिन में हर घंटे पार्टी बदली और 'आया राम गया राम' कहावत को स्थापित किया।
ऐसा ही एक मामला भजन लाल वर्सेज देवी लाल का भी याद आ रहा है। उस समय हरियाणा के राज्यपाल जीडी तपासे ने कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए संदेश भेजा था। तपासे ने भजन लाल को अपना बहुमत साबित करने के लिए एक महीने का समय दिया था। 


उस समय देवी लाल और अपने 48 विधायक के साथ समर्थक लोकदल और बीजेपी के विधायकों के साथ राज्यपाल को सरकार बनाने के लिए प्रस्ताव भेजने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन तभी मुख्यमंत्री बनने के लिए भजनलाल ने तिकड़म खेला और अपने 37 विधायकों के साथ जनता पार्टी को छोड़ कांग्रेस को ज्वाइन किया और 1980 में हरियाणा के मुख्यमंत्री बन गए।

जमानत, परोल और फरलॉ का फंडा

परोल और फरलॉ सजायाफ्ता मुजरिम को दिया जाता है, जबकि जमानत उन मुल्जिमों को दिया जाता है जिनकी सुनवाई पेंडिंग है। जिन मुल्जिमों की सुनवाई चल रही होती है, उन्हें कस्टडी परोल भी दिए जाने का प्रावधान है। कानूनी जानकार बताते हैं कि जमानत, परोल और फरलॉ से अलग होती है।
कब मिलती है जमानत
कानूनी जानकार अमन सरीन ने बताया कि जब किसी आरोपी का केस निचली कोर्ट में पेंडिंग होता है, तो आरोपी सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत जमानत की अर्जी दाखिल कर सकता है। इस अर्जी पर फैसला केस की मेरिट पर होता है। इस दौरान आरोपी को अंतरिम जमानत दी जा सकती है या फिर रेग्युलर जमानत दिए जाने का प्रावधान है। इसके अलावा अग्रिम जमानत दिए जाने का भी प्रावधान है। इस दौरान अदालत शर्तें तय करती है और उन शर्तों और तय जमानत राशि भरने के बाद जमानत दे दी जाती है।

सजा का सस्पेंड किया जाना
यह जमानत से थोड़ा अलग है। जब किसी आरोपी को निचली अदालत से दोषी करार दिया जाए और उसे अपील करनी है तो वह सजा सस्पेंड करने के लिए गुहार लगा सकता है। इस दौरान मिलने वाली जमानत को तकनीकी तौर पर सजा सस्पेंड किया जाना कहते हैं। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जब निचली अदालत के फैसले को चुनौती दी जाती है और उस दौरान आरोपी जमानत की मांग करता है तो सजा सस्पेंड की जाती है और आरोपी जेल से बाहर होता है।

कस्टडी परोल
कानूनी जानकार एम. एस. खान ने बताया कि जब आरोपी के परिवार में किसी की मौत हो जाए या फिर किसी नजदीकी की शादी हो या फिर गंभीर बीमारी हो गई हो तो उसे कस्टडी परोल पर छोड़ा जाता है। यह अधिकतम छह घंटे के लिए होता है। कस्टडी परोल आरोपी व सजायाफ्ता दोनों को दिया जा सकता है। इस दौरान जेल से निकलने और जेल जाने तक आरोपी के साथ पुलिसकर्मी रहते हैं ताकि आरोपी भाग न सके। कोर्ट के निर्देश पर पिछले साल फरवरी में दिल्ली सरकार ने कस्टडी परोल, परोल और फरलॉ के बारे में गाइडलाइंस जारी की थीं और उसी के अनुसार परोल या कस्टडी परोल दिया जाता है।

परोल का प्रावधान
परोल का फैसला प्रशासनिक है। अगर जेल प्रशासन व गृह विभाग से परोल संबंधी अर्जी खारिज हो जाए तो सजायाफ्ता अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। परोल के लिए तभी अर्जी दाखिल की जा सकती है, जब किसी भी अदालत में अर्जी पेंडिंग न हो और मुजरिम सजा काट रहा हो। इसके लिए कई शर्तें हैं। घर में किसी मौत, गंभीर बीमारी, किसी नजदीकी रिश्तेदार की शादी, पत्नी की डिलिवरी आदि के आधार पर परोल की मांग की जा सकती है। इसके लिए जरूरी है कि दोषी शख्स का आचरण जेल में अच्छा हो। साथ ही पिछले परोल के दौरान उसने कोई क्राइम न किया हो। दोषी शख्स जेल सुपरिंटेंडेंट को याचिका देता है और वह उस याचिका को गृह विभाग के पास भेजता है, जहां से इस पर निर्णय होता है। अगर प्रशासनिक स्तर पर याचिका खारिज हो जाए तो याचिका हाई कोर्ट के सामने दाखिल की जा सकती है।

कब नहीं मिलता
क्रिमिनल वकील करण सिंह ने बताया कि ऐसे मुजरिम को परोल नहीं दिया जाता, जिसने रेप के बाद मर्डर किया हो, कई हत्याओं में दोषी करार दिया गया हो, जो भारत का नागरिक न हो या फिर आतंकवाद या देशद्रोह से संबंधित मामलों में दोषी करार दिया गया हो।

फरलॉ का प्रावधान
जिस सजायाफ्ता मुजरिम को पांच साल या उससे ज्यादा की सजा हुई हो और वह तीन साल जेल में काट चुका हो, उसे साल में सात हफ्ते के लिए फरलॉ दिए जाने का प्रावधान है। इसके लिए भी शर्त है कि उसका आचरण सही होना चाहिए। वह आदतन अपराधी न हो, भारत का नागरिक हो और गंभीर अपराध में दोषी न हो। इनकी अर्जी डीजी (जेल) के पास भेजी जाती है और फिर मामला गृह विभाग के पास जाता है। 12 हफ्ते में इस पर फैसला हो जाता है।

Difference Between FIR And NCR | FIR और NCR में अंतर

कोई महत्वपूर्ण सामान जैसे Debit card, credit card, driving license, Aadhar card  गुम हो जानेआपसी झड़पमारपीट या गाली-गलौच होने जैसे ही कई मामलों के समाधान के लिए पुलिस स्टेशन में शिकायत की जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि हर तरह की शिकायत के लिए के लिए एफआईआर दर्ज नहीं होती। कुछ मामलों में एनसीआर भी करनी होती है और कुछ मामलों में पुलिस शिकायत को अपने रजिस्टर में दर्ज़ कर जाँच करती है यानि की कुछ शिकायतों में न तो फिर न ही एनसीआर (NCR) कटी जाती है।  क्राइम के आधार पर पहले तय किया जाता है;कि वह किस कैटेगरी का है और उसी के मुताबिकएफआईआर या एनसीआर करते हैं। यह केटेगरी दंड प्रक्रिया संहिता की प्रथम अनुसूची में प्रावधान है की कौन से अपराध एनसीआर होंगे कौन से FIR (FIR और NCR में अंतर)

FIR और NCR में अंतर


 अपराध को दो श्रेणी में विभाजित किया गया है संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और असंज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) अपराध।

संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध ( Cognizable Offence) 

- जो संगीन अपराध होते है वह संज्ञेय अपराध होता है यह अपराध दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 (3) के अंतर्गत दर्ज की जाती है पुलिस Cognizable Offence में बिना वारंट गिरफ्तार कर सकती है तथा पुलिस को इसकी जाँच के लिए कोर्ट से अनुमति की जरुरत भी नहीं होती है । पुलिस स्वतः संज्ञान ले सकती है ।
यह अपराध दो प्रकार को होता है|

1. Bailable  (जमानतीय) : जिन अपराधों को CrPC ,1973  की अनुसूची प्रथम में जमानतीय अपराध में वर्गीकृत किया गया है । ऐसे अपराधों में पुलिस जमानत दे सकती है जिन अपराधों को CrPC ,1973  की अनुसूची प्रथम में जमानतीय अपराध में वर्गीकृत किया गया है ।

2. Non -Bailable (गैर जमानतीय ):जिन अपराधों को CrPC ,1973  की अनुसूची प्रथम में गैर जमानतीय अपराध में वर्गीकृत किया गया है । ऐसे अपराधों में पुलिस जमानत नहीं दे सकती है जिन अपराधों को CrPC ,1973  की अनुसूची प्रथम में जमानतीय अपराध में वर्गीकृत किया गया है । न्यायालय ही जमानत दे सकते है जिन अपराधों कोCrPC ,1973  की अनुसूची प्रथम में जमानतीय अपराध में वर्गीकृत किया गया है ।

सामानयतः 03  साल से अधिक की सजा वाले अपराध गैर जमानतीय अपराध होते है जिन अपराधों को CrPC ,1973  की अनुसूची प्रथम में जमानतीय अपराध में वर्गीकृत किया गया है 

असंज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) ऑफेंस ( Non Cognizable Offence)

-असंज्ञेय अपराध में सीधे तौर पर एफआईआर दर्ज किए जाने का प्रावधान नहीं है। ऐसे मामले में पुलिस को शिकायत दिए जाने के बाद पुलिस रोज़नामचा आम में एंट्री करती है और इस बारे में कोर्ट को अवगत करा दिया जाता है। एनसीआर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 के अंतर्गत दर्ज़ की जाती है पुलिस को ऐसे मामलों में बिना वारंट गिरफ्तार का अधिकार नहीं होता है न ही पुलिस कोर्ट की अनुमति के बिना कारवाही कर सकती है। पुलिस स्वतः संज्ञान नहीं ले सकती है ।

किस तरह के मामलों में पुलिस आमतौर पर एनसीआर काटती है

अगर किसी का मोबाइल गुम हो जाए या फिर चोरी हो गया हो तो उस मोबाइल का गलत इस्तेमाल भी हो सकता है। पर्स में मौजूद अहम दस्तावेज अथवा ड्राइविंग लाइसेंस डेबिट कार्ड क्रेडिट कार्ड आधार कार्ड आदि का भी गलत इस्तेमाल हो सकता है। इतना ही नहीं दोबारा ये दस्तावेज बनवाने में भी पुलिस रिपोर्ट की जरूरत होती है ऐसे में पुलिस को की गई शिकायत का काफी ज्यादा महत्व है। ऐसे मामले में तनिक भी लापरवाही ठीक नहीं होती और गायब हुए सामान के बारे में पुलिस को सूचना दिया जाना चाहिए। ऐसे मामलों में आमतौर पर पुलिस सीधे तौर पर एफआईआर नहीं करती अगर किसी की मोबाइल चोरी हुई हो या फिर किसी ने लूट लिया हो तभी एफआईआर दर्ज होती है। लेकिन मोबाइल कहीं खो जाए या फिर गुम हो जाए तो पुलिस एनसीआर काटती है।

पुलिस एनसीआर में किस तरह कारवाही करती है

एनसीआर में पुलिस घटना के बारे में जिक्र करती है और उसकी एक कॉपी शिकायती को दिया जाता है। इसके बाद अगर उक्त मोबाइल या फिर गायब हुए किसी दस्तावेज का कोई भी शख्स गलत इस्तेमाल करता है तो एनसीआर की कॉपी के आधार पर अपना बचाव किया जा सकता है। ऐसे में एनसीआर की काफी ज्यादा अहमियत है। उन्होंने बताया कि एनसीआर की कॉपी पुलिस अधिकारी कोर्ट को भेजता है। साथ ही मामले की छानबीन के बाद अगर कोई क्लू न मिले तो पुलिस अनट्रेसेबल का रिपोर्ट दाखिल करती है लेकिन छानबीन के दौरान पुलिस अगर केस सुलझा ले और सामान की रिकवरी हो जाए तो एनसीआर की कॉपी के आधार पर वह सामान शिकायती को मिल सकता है।

कौन से अपराध Cognizable है कौन से Non Cognizable है